________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विस्तृत विवेचन सहित 203 सहन करने पड़ते हैं। जो जीव पुण्य के उदय से प्राप्त आनन्द की अवस्था में कषायों को मन्द रखता है; अपनी मोह वृत्ति को दूर करता है वह पुण्यानुबन्धी पुण्य का अर्जन कर सुख भोगता हुआ आनन्द प्राप्त करता है। सुख के आने पर मनुष्य को अपने रूप को कभी नहीं भूलना चाहिये। सुख वही स्थिर रहता है, जो आत्मा से उत्पन्न हुआ हो। क्षणिक इन्द्रियों के उपयोग से उत्पन्न सुख कभी भी स्थिर नहीं हो सकते हैं तथा निश्चय से ये आत्मा के लिये अहित कारक हैं, इनसे और शुद्धास्मानुभूति से कोई सम्बन्ध नहीं है जो अरिहन्त परमात्मा के द्रव्य-गुण- पर्यायों को पहचानता है, वह पुण्य का भागी बन जाता है तथा उसका पुण्य आत्मानुभूति को उत्पन्न करने में सहायक होता है। जो व्यक्ति विषय-भोग और कषायों की पुष्टि में श्रासक्त रहता है, वह पापानुबन्धी पाप का बन्ध करता है, जिससे आत्मा का अहित होता है। अदुतानेंतेने मुन्न गेयद दुरितं दारिद्र दोळतळतोर्ड। दयामूल मतक्के सदु नडेवं मुंदेयदुवं पुण्य सं-॥ पदमं तां सुकृतानुवंधि दुरितं तन्निर्धनं मिथ्ययोळपुदियल्तां दुरितानुवंधि दुरितं रत्नाकराधीश्वरा // 39 // For Private And Personal Use Only