________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 202 रत्नाकर शतक परिणमन-शील आत्मा जब शुद्ध भाव में परिणमन कर रागद्वेष, मोहरूप परिणमन करती है, तब इससे कर्मों का बन्ध होता है; जिससे यह आत्मा चारों गतियों में भ्रमण करता है। राग, द्वेष, मोह, क्षोभ आदि विकार उत्पन्न होते रहते हैं। जो व्यक्ति आगम द्वारा तत्वों का अभ्यास कर द्रव्यों के सामान्य और विशेष स्वभाव को पहचानता है तथा परपदार्थों से प्रात्मा को पृथक समझता है, वह विकारों को यथाशीघ्र दूर करने में समर्थ होता है। इन्द्रियों से सुख भोगने केलिये जो पुण्य या पाप रूप प्रवृत्ति की जाती है, उससे जो आनन्द मिलता है वह भी राग के कारण ही उत्पन्न होता है। यदि राग या आसक्ति विषयों की ओर न हो तो जीव को आनन्द की अनुभूति नहीं हो सकती है। शरीर एवं विषयों के पोषण करने वालों को आनन्द के स्थान में विषय तृष्णा जन्य दाह प्राप्त होता है, जिससे सुख नहीं मिलता और न पुण्य ही होता है। विषय-तृष्णा के दाह की शान्ति के लिये यह जीव चक्रवर्ती, इन्द्र आदि के सुखों को भोगता है। पर उनसे भी शान्ति नहीं होती, विषय लालसा अहर्निश बढ़ती ही चली जाती है / . जबतक जीव को पुण्य का उदय रहता है, सुख मिलता है; पर पाप का उदय आते ही इस जीव को नाना प्रकार के कष्ट For Private And Personal Use Only