________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रत्नाकर शतक संकिलेस विसुद्धि सहज दोउ कर्म चालि, कुगति सुगति जग जाल में विशेषिये // नारकादि भेद तोहि सूझत मिथ्यातमांहि, ऐसे द्वैतभाव ज्ञानदृष्टि में न लेखिये / दोउ महा अन्धकूप दोउ कर्म बन्ध रूप, दुहू को विनास मोष मारग में देखिये // अर्थ-- पाप और पुण्य बन्ध इन दोनों से मोक्ष नहीं मिल सकती है। इन दोनों के. मधुर और कटुक., स्वाद पौद्गलिक ही आते हैं। संक्लेश और विशुद्ध परिणाम ,पाप और पुण्यमय होते हैं, ये दोनों. कुगति और सुगति को देनेवाले हैं। इन दोनों के कारणों का भेद मिथ्यात्व ही है, ज्ञान में दोनों भेद डालने वाले हैं। दोनों ही अन्धकार रूप . कर्म बन्ध करानेवाले है अतः दोनों के नाश से.ही निर्वाण मार्ग की प्राप्ति होती है / वगेयल्दुष्कृतमोर्मे तां शुभदमात्ममे केनल्पुण्यवृ-। द्धिगेतां मुंदनुवंध मादकतदिं पुण्यं सुपुण्यानु वं- // धिगे वंदंददुर्बु शुभं सुकृतमुपापानुवंधक्के मु-। पुगे पापक्कनुवंधि पापमशुभं रत्नाकराधीश्वरा ! // 38 // हे रत्नाकराधीश्वर ! विचार पूर्वक देखा जाय तो एक दृष्टि से पाप आगामी पुण्य-वृद्धि For Private And Personal Use Only