________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विस्तृत विवेचन सहित आदि से परहेज करेगा। इसी प्रकार एक ही वेदनीय कर्म के साता और असाता ये दो पुत्र हैं। साता के उदय से जीव को भौतिक सुखों की प्राप्ति होती है तथा क्षणिक इन्द्रि-जन्य आनन्द को प्राप्त कर निराकुल होनेका प्रयत्न करता है। फिर भी आकुलता से अपना पाछा नहीं छुड़ा पाता है। असाता का उदय आनेपर जीव को दुःख प्राप्त होता है। इष्ट पदार्थो से वियोग होता है, अनिष्ट पदार्थो से संयोग होता है जिससे इसे शारीरिक और मानसिक बैचेनी होती है। सुबुद्ध जीव असाता के उदय में सचेत होकर आत्म चिन्तन की ओर लग भी जाते हैं, परन्तु अधिकतर जीव इस पण्य पाप की तराजू के पलड़ों में बैठकर झूलते रहते हैं। सम्यग्दृष्टि जीव इस पुण्य-पाप में आसक्त और विरक्त नहीं होता है, वह आसक्ति और विरक्ति के बीच संतुलन रखकर अपना कल्याण करता है। कविवर बनारसीदास ने नाटक समयसार में शुभअशुभ कर्मो के त्यागने के उपर बड़ा भारी जोर दिया है। उन्होंने इन दोनों को आत्मा का धर्म नहीं माना है। कवि ने आत्मानुभूति में डुबकियाँ लगाते हुए लिखा है पाप बन्ध पुन्य बन्ध दुहू में मुगति नाहि, कटुक मधुर स्वाद पुद्गल को देखिये / For Private And Personal Use Only