________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 168 रत्नाकर शतक जाता है ! अात्मा क ।इधर-उधर का भ्रमण पूर्ण नहीं होता। पाप श्रोर पुण्य को सम दृष्टि से देखकर श्रात्म-चिन्तन में स्थिर रहकर श्रानन्द मनानेवाला व्यक्ति स्थिर और नाश रहित सुख को प्राप्त होता है // 30 // विवेचन--- आत्मा के संक्लेश परिणामों से पाप का बन्ध होता है तथा जब यह संक्लेश प्रवृत्ति रुक जाती है और आत्मा में विशुद्ध प्रवृत्ति जाग्रत हो जाती है तो पुण्य का बन्ध होने लगता है। पापासव के रुक जाने पर आत्मा में पुण्यास्रव होता है। यह भी विजातीय है, पर इसके उदय काल में जोव को सभी प्रकार के ऐन्द्रियक विषय-भोग प्राप्त होते हैं, जीव इस क्षणिक आनन्द में अपने को भूल जाता है तथा पुण्य का फल भोगता हुआ कषाय, राग द्वेष आदि विकारों के आधीन होकर पुनः पाप पंक में घस जाता है। इस प्रकार यह पुण्य-पाप का चक्र निरन्तर चलता रहता है, इससे जीव को निराकुलता नहीं होती है। पुण्य पाप इस प्रकार हैं जैसे कोई स्त्री एक साथ दो उत्पन्न हुए अपने पुत्रों में से एक को शूद्र के घर दे दे तथा दूसरे को ब्राह्मण के घर। शूद के घर दिया गया पुत्र शूद्र कहलायेगा तथा वह मान्स, मदिरा का भी सेवन करेगा, क्योंकि उसकी वह कुल परम्परा है। ब्राह्मण के यहाँ दिया गया पुत्र ब्राह्मण कहलायगा तथा वह ब्राह्मण कुल परम्परा के अनुसार मद्य, मान्स For Private And Personal Use Only