________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विस्तृत विवेचन सहित 167 इस पुण्य-पाप क्रिया से पृथक् हो जाता है, इसे पराधीनता का कारण समझ लेता है तो वह दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप इन चार प्रकार की विनयों को धारण करता है। तथा अपनी आत्मा को भी सर्वदा निष्कलंक, निर्मल और अखण्ड समझता है / ___अज्ञानी जीव राग के कारण कर्मों का बन्ध करता ही है; क्योंकि राग बन्धक और वैगग्य मुक्तक होता है। शुभ, अशुभ सभी प्रकार के कर्म राग प्रवृत्ति से बन्धते हैं अतः कम परम्परा दृढ़तर होती चली जाती है। क्योंकि कर्मका त्याग किये बिना ज्ञानका आश्रय नहीं मिलता है। कर्मासक्त जीव ज्ञानसच्चे विवेक से कोसों दूर रहता है और समस्त श्राकुलताओं से रहित परमानन्द की प्राप्ति उसे नहीं हो पाती है / अज्ञानी, कषायी जीव ज्ञानानन्द के स्वाद को नहीं जानता है। दुरितं तीर्दोडे पुण्य दोळ्निलुवना पुण्यं करं तीर्दोडा। दुरितंवोदु वनित्तलत्त लेडयाट कुंददात्म गिवं // सरिगंडात्म विचार वोंद रोळे निंदानंदिसुत्तिर्पने / स्थिर नक्कुं सुखीयक्कु मक्षयनला रत्नाकराधीश्वरा // 37 // हे रत्नाकराधीश्वर ! पाप का नाश होने पर प्रात्मा अपने पुण्य में अवस्थित रहता है / जब पुण्य सम्पूर्णतः नष्ट हो जाता है तब आत्मा पुनः पाप को प्राप्त हो For Private And Personal Use Only