________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 166 रत्नाकर शतक ज्ञान के अभाव से रागादि रूप परिणमन करता हुआ शुभ, अशुभ कर्मों के कारण पुण्यात्मा तथा पापी बनता है। यद्यपि यह व्यवहार नय से पुण्य-पाप रूप है, तो भी परमात्मा की अनुभूति से तन्मयी जो वीतराग सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और बाह्य पदार्थों में इच्छा को रोकने रूप तप ये चार निश्चय आराधना हैं। इनकी भावना के समय साक्षात् उपादेय रूप वीतराग, परमानन्द जो मोक्ष का सुख उससे अभिन्न आनन्दमयी निज शुद्धास्मा ही उपादेय है। ___ अभिप्राय यह है कि शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के कर्मों के साथ राग और संगति करना सर्वथा त्याज्य है, क्योंकि ये दोनों ही आत्मा की परतन्त्रता के कारण हैं। जिस प्रकार कोई पक्षी किसी हरे-भरे वृक्ष को विषफल वाला जानकर उसके साथ राग और संसर्ग नहीं करता है उसी प्रकार यह आत्मा भी राग रहित ज्ञानी हो अपने बन्ध के कारण शुभ और अशुभ सभी कर्म प्रकृतियों को परमार्थ से बुरी जानकर उनके साथ राग और संसर्ग नहीं करता है। सभी कर्म, चाहे पुण्य रूप हों या पाप रूप पौद्गलिक हैं, उनका स्वभाव और परिणाम दोनों ही पुद्गलमय हैं। आत्मा के स्वभाव के साथ उनका कोई सम्बन्ध नहीं है। आत्मा जब For Private And Personal Use Only