________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विस्तृत विवेचन सहित 165 विवेचन- अज्ञान रूप होने से पुण्य-पाप, दोनों समान हैं। एकही पुद्गल वृक्ष के फल हैं; अन्तर इतना ही है कि एक का फल मोठा है तो दूसरे का खट्टा। फल रूप से दोनों में कोई अन्तर नहीं है। पुण्य के उदय से स्वर्गिक सुखों के प्राप्त हो जाने पर भी वे सुख शाश्वत नहीं होते। इन सुखों में नाना प्रकार की बाधाएँ आती रहती हैं, अतः अनित्य पुण्य जनित सुख भी आत्मा से बाहर होने के कारण त्याज्य है / परमात्मप्रकाश के टीकाकार ने इसी बात को स्पष्ट करते हुए कहा है एष जीवः शुद्धनिश्चयेन वीतरागचिदानन्दैक स्वभावोऽपि पश्चात्व्यवहारेण वीतरागनिर्विकल्प स्वसंवेदनाभावेनोपार्जितं शुभाशुभं कर्म हेतुं लब्ध्वा पुण्यरूपः पापरूपश्च भवति / अत्र यद्यापि व्यवहारेण पुण्यपापरूपो भवति, तथापि परमात्मानुभूत्यविनाभूतवीतरागसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रबहिर्द्रव्येच्छानिरोधलक्षणतपश्चरणरूपा या तु निश्चयचतुर्विधाराधना तस्या भावनाकाले साक्षादुपादेयभूतवीतरागपरमानन्दैकरूपो मोक्षसुखाभिन्नत्वात् शुद्धजीव उपादेय इति / ... अर्थ--यह जीव शुद्ध निश्चय नय से वीतराग चिदानन्द स्वभाव है, तो भी व्यवहार नय से वीतराग निर्विकल्प स्वसंवेदन For Private And Personal Use Only