________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रत्नाकर शतक - -- हेतु जीव के अशुभ परिणाम--तीन क्रोधादि, अशुभ लेश्या, निर्दयपना, विषयासक्ति, देव-गुरु आदि पुज्य पुरुषों की विनय नहीं करना आदि हैं। शुभ और अशुभ ये एकही पुद्गल द्रव्य के स्वभाव भेद हैं अतः शुभ द्रव्य-कर्म सातावेदनीय, शुभ प्रायु, शुभ नाम, शुभ गोत्र एवं अशुभ चार घातिया कर्म, असातावेदनीय, अशुभ आयु, अशुभ नाम, अशुभ गोत्र हैं / इनके उदय से प्राणी को इष्ट, अनिष्ट सामग्री मिलती है; अतः ये पुद्गल के स्वभाव हैं। आत्मा का इनके साथ कोई सम्बन्ध नहीं, क्योंकि आत्मा ज्ञान, दर्शनमय चैतन्य द्रव्य है, ये पुद्गल के विकार हैं, अतः आत्मा से बाहिर हैं। सुकृतं दुष्कृतमु समानमदनन्यर्मेच्चरेकेंदोडा। सुकृतं स्वर्गसुखक्के कारण मेनल्लत्सौख्यमे नित्यमो॥ विकृतं गोंडलिवंदळल्जनिसदो स्वप्नंवोलें मांजदो। प्रकृति प्रात्सिगे नकदो पिरिददें रत्नकराधीश्वरा // 36|| हे रत्नाकराधीश्वर ! 'पाप और पुण्य दोनों समान हैं। इस बात को लोग नहीं मानते क्योंकि पुण्य स्वर्ग-सुख का कारण बनता है। पर क्या वह सुख नित्य है ? क्या स्वप्न की तरह वह स्वर्ग-सुख नष्ट नहीं हो जाता ? कर्म प्रकृति की ओर नहीं लेजाता ? कर्म इस प्रकार का होने से क्या बड़ा है ? // 36 // For Private And Personal Use Only