________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विस्तृत विवेचन सहित 163 है / जहाँ पुण्य कर्म स्वर्ग-सुख देता है, वहाँ पाप कर्म नरक को। ये दोनों ही बन्ध के कारण है, दोनों ही आत्मा के लिये जेल हैं। हाँ, इतना अवश्य है कि एक सुख विलास की जेल है तो दूसरा कष्ट की। कुन्दकुन्दाचार्य ने समयसार में पुण्यपाप को आत्मधर्म से पृथक् बताया है, अतः ये जीव के लिये त्याज्य हैं। कम्ममसुहं कुसीलं सुहकम्मं चावि जाणह सुसीले / किह तं होदि सुसीलं जं संसारं पवेसेदि // अर्थ-अशुभ कर्म पाप स्वभाव होने से बुरा है और शुभ कर्म पुण्य स्वभाव होने से अच्छा है ऐसा जगत् जानता है। परन्तु वास्तविक बात यह है कि जो कर्म प्राणो को संसार में प्रवेश कराता है, वह कर्म शुभ कैसे हो सकता है ? अर्थात् पुण्य और पाप दोनों ही प्रकार के कर्म संसार के कारण हैं। ___ एक ही कम शुभ-अशुभ प्रवृत्तियों के कारण दो रूप में परिणमन कर लेता है-शुभ और अशुभ / ये दोनों ही परिणाम अज्ञानमय होने के कारण एक ही से हैं तथा दोनों ही पुद्गल रूप हैं, दोनों में कोई भेद नहीं। जीव के शुभ परिणामों में कषायों को मन्द करनेवाले अरिहन्त में अनुराग, जीवों में अनुकम्पा, चित्त की उज्वलता आदि परिणाम प्रधान हैं। अशुभ का For Private And Personal Use Only