________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 192 रत्नाकर शतक स्वाध्याय करना, गुरु भक्ति करना, व्रत पालन करना, उपवास करना आदि कार्य पुण्योत्पादक माने जाते हैं तथा हिंसा करना, जुआ खेलना, मान्स खाना, चोरी करना, झूठ बोलना, मद्यपान करना, शिकार खेलना, वेश्या गमन करना इत्यादि कार्य पापोत्पादक माने जाते हैं। पुण्योत्पादक कर्मों के उदय आने पर इस जीव को इन्द्रिय सुख और पापोत्पादक कर्मों के उदय आने पर इस जीव को दुःख होता है। व्यवहार नय की दृष्टि से पुण्योत्पादक कार्य प्रशस्त हैं, इनके द्वारा सम्यग्दर्शन को दृढ़ किया जा सकता है तथा जीव सराग चारित्र के द्वारा अपनी इतनी तैयारी कर लेता है जिससे आगे बढ़ने पर आत्म ज्ञान की प्राप्ति हो जाती। मानव समाज के सामूहिक विकाश के लिये भी पुण्योत्पादक कार्य प्रशस्त हैं; क्यों कि इनके द्वारा मानव समाज में शान्ति, प्रेम और एकता की स्थापना होती है। समाज के विकाश के लिये ये नियम माननीय हैं। इसके अलावा इन धार्मिक नियम का महत्व आत्मोत्थान में भी है। इनके द्वारा परम्परा से श्रात्मशुद्धि की प्राप्ति होती है, कषायें मन्द होती हैं। पाप कर्म इसके विपरीत व्यक्ति तथा समाज दोनों को कष्ट देनेवाले हैं। पाप कर्मों के द्वारा आत्मा बोझिल होती जाती है और जीव कषायों को पुष्ट करता रहता For Private And Personal Use Only