________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विस्तृत विवेचन सहित 191 यह शरीर ग्रहण करना पड़ता है / . जीव जिस भाव से इन्द्रिय गोचर पदार्थों को देखता है और जानता है, इससे वह प्रभावित होता है, अनुराग करता है, वैसे ही कर्मों के साथ सम्बन्ध कर लेता है / जीव की यह प्रक्रिया अनादिकाल से चली आरही है। अतः अब भेदविज्ञान द्वारा इस बन्धन को तोड़ना चाहिये। पापं नारक भूमिगोय्वुदसुवं पुण्यं दिवक्कोवुदा / पापं पुण्यमिवोंदु गूडिदोडे तिर्यङमर्त्य जन्मंगलोळ / / रूपं माळ्कुमिवेल्ल मधुममिवे जन्मक्के साविं गोडल् / पापं पुण्यमिवात्म बाह्यकवला रत्नाकराधीश्वरा! // 35 / / हे रत्नाकराधीश्वर ! पाप जीव को नरक की ओर और पुण्य स्वर्ग की ओर ले जाता है / पाप और पुण्य दानों मिलकर तिर्यञ्च गति और मनुष्य गति में उत्पन्न करते हैं, पर यह सभी अनित्य है। पाप और पुण्य ही जन्म-मरण के कारण हैं / क्या यह सब आत्मा के बाहर की चीज नहीं है ? // 35 / / विवेचन--- अज्ञान तथा तीव्र राग-द्वेष के आधीन होकर अपने धर्म की रक्षा न करना कर्त्तव्य च्युत होना है। जीव अपनी सत् प्रवृत्ति के कारण पुण्य का अर्जन करता है तथा असत् प्रवृत्ति के कारण पाप का। दान देना, पूजा करना, For Private And Personal Use Only