________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 160 रत्नाकर शतक इसे शरीर की प्राप्ति होती है, शरीर में इन्द्रियाँ, इन्द्रियों से विषय ग्रहण और विषय ग्रहण से राग-द्वेष की उत्पत्ति होती है। अशुद्ध जीव इस प्रकार सांसारिक भूलभुलैया में पड़कर अशुद्ध भावों की परम्परा अर्जित करता है। - जीव को औदारिक, वैक्रियक, तैजस, आहारक और कार्माण ये पाँच प्रकार के शरीर मिलते हैं। जो स्थूल शरीर बाहर से दिखलायी पड़ता है, सप्त धातुमय है, तथा रोग, बीमारी आदि के कारण जिस शरीर में वृद्धि-हास होता है, औदारिक है / छोटा, बड़ा, एक, अनेक आदि विविध रूप धारण करनेवाला शरीर वैक्रियिक शरीर कहलाना है। यहां शरीर देव और नारकियों को जन्म से अपने आप मिल जाता है तथा अन्य जीवों को तपस्या आदि की साधना द्वारा प्राप्त होता है। भोजन किये गये आहार को पचानेवाला और शरीर की दीप्ति का कारणभूत तैजस शरीर कहलाता है। शास्त्रों के ज्ञाता मुनि द्वारा शंका समाधान के निमित्त सर्वत्र गमन करनेवाला तीर्थंकर के पास भेजने के अभिमाय से रचा गया शरीर आहारक कहलाता है। जीव के द्वारा बन्धे हुए कर्मों के समूह को कार्माण शरीर कहते हैं। प्रत्येक जीव में इस स्थूल शरीर के साथ कार्माण और तैजस ये दो सूक्ष्म शरीर अवश्य रहते हैं। मनुष्यों को नाम कर्म के कारण For Private And Personal Use Only