________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 188 रत्नाकर शतक तथा इसीके द्वारा जीव आप और पर को जानता है। जिस समय आत्मा उदासीन होकर पर पदार्थों को जानना छोड़ देता है; आप ही ज्ञाता और आप हो ज्ञेय बन जाता है। यही सच्चा सुख है। इसीके लिये प्रयत्न करना चाहिये / / ओंदोदात्मने शुद्धदि त्रिजगदापूर्णाकृतंगळ जगद्वदोत्कंपित शक्तिगळारग शक्यंगळ जगत्कर्तृगळ / / तंदितेल्लवनार्द्रचर्म दोड लोळतळताने पेएणश्ववाळिदें मार्गुणो पाप पुण्य युगळ रत्नाकराधीश्वरा // 34 // हे रखाकराधीश्वर ! शुद्ध निश्चय-दृष्टि से एक प्रात्मा ही तीनों लोकों को व्याप्त करके रहनेवाला आकार स्वरूप है। तीनों लोकों को हिला देने की शक्ति प्रात्मा में है। प्रात्मा दूसरों से जीता नहीं जा सकता। कार्माण शरीर आत्मा को गीले चमड़े में घुसा कर अर्थात् स्थूल शरीर धारण कराकर 'हाथी, घोड़ा, नौकर आदि ऐसा अनेक नाम देता रहता है, कितना आश्चर्य है !! // 3 // विवेचन- -- जीव असंख्यात प्रदेशमय है और समस्त लोक को व्याप्त करके भी रह सकता है। इस जीव में अपार शक्ति है, यह अपनी शक्ति के द्वारा तीनों लोकों को कम्पित कर सकता है। इसके गुण अनन्त और अमूर्त हैं, यह इन्हीं गुणों के कारण विविध प्रकार के परिणामों का अनुभव करता है। For Private And Personal Use Only