________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विस्तृत विवेचन सहित 187 चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो सो समो त्ति णिदिठो / मोहक्खोह विहीणो परिणामो अप्पणो हु समो॥ परिणमदी जेण दव्वं तकाल तम्मय त्ति पण्णत्तं / तम्हा धम्मपरिणदो आदा धम्मो मुणेदव्वो // जीवो परिणमदि जदासुहेण असुहेण वा सुहो असुहो / सुद्धेण तदा सुद्धो हवादे हि परिणामसब्भावो // ___ धम्मेण पारणदप्पाअप्या जदि सुद्धसंपयोगजुदो / पावदि णिव्वाणसुहं सुहोवजुत्तो व सग्गसुहं / / भावार्थ---निश्चय से दर्शन मोह और चारित्र मोह रहित तथा सम्यग्दर्शन और वीतरागता सहित जो आत्मा का निज भाव है वही साम्य भाव है-- आत्मा जब सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र रूप परिणमन करता है, तब जो भाव स्वात्मा सम्बन्धी होता है, उसे ही समता-भाव या शान्त-भाव कहते हैं। यही संसार से उद्धार करनेवाला धर्म है। आत्मा जब परभाव में न परिणमन करके अपने स्वभाव में परिणमन करता है, तब आत्मा ही धर्म बन जाता है। राग-द्वष और मोह संसार है, इसे दूर करने के लिये वीतराग चारित्र की परम आवश्यकता है। आत्मा में ज्ञानोपयोग मुख्य है, इसी के द्वारा आत्मा में प्रकाश आता है For Private And Personal Use Only