________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 186 . रत्नाकर शतक कषायों के अंशों के मेल से आत्मा के गुणों का घात करनेवाला है, वह सराग चारित्र होता है। सराग चारित्र से पुण्य बन्ध होता है, जिससे इन्द्र, अहमिन्द्र आदि की प्राप्ति होती है। सराग चारित्र बन्ध का कारण है, यह सुख स्वरूप नहीं, इसके पालन करने से परम सुख की प्राप्ति नहीं हो सकती है। अतः आत्मविकास की अवस्था में पूजन-पाठ, भक्ति आदि सराग चारित्र त्यागने योग्य है। ___ वीतराग चारित्र वस्तु का स्वभाव है। वीतराग चारित्र, निश्चय चारित्र, धर्म, समपरिणाम ये सब एकार्थवाचक हैं और मोहनीय से भिन्न विकार रहित सुखमय जो आत्मा का स्थिर परिणाम है वही इसका सर्वमान्य स्वरूप है। इसी कारण वीतराग चारित्र ही आत्म स्वरूप कहा जाता है; क्योंकि जब जिस प्रकार के भावों से युक्त यह आत्मा परिणमन करता है, उस समय वीतराग चारित्ररूप धर्म सहित परिणमन करने के कारण यह चारित्र आत्मस्वरूप में ही व्यक्त होता है। अतः आत्मा और चारित्र इन दोनों में ऐक्य है। कुदकुन्द स्वामीने वीतराग चारित्र को ही सबसे बड़ा धर्म माना है और इसको परम सुख का कारण बताया है। जीव के लिये आराध्य यही चारित्र है For Private And Personal Use Only