________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 184 रत्नाकर शतक प्राप्त कर लेता है। द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से जीव नित्य है. शुद्ध है, शाश्वत चैतन्य रूप है, ज्ञानादि गुगा इसमें वर्तमान हैं पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से जीव उत्पन्न होता है, नाश होता है, कुटुम्ब, वंश, स्त्री, पुत्र, बन्धु आदि की कल्पना करता है / अध्यवसान विपरीत श्रद्धान द्वारा इस जीव ने पुद्गल द्रव्य के संयोग से हुए परिणमन को अपना समझ लिया है तथा उसके विकृत परिणामों को अपना मानने लगा है / जैसे समुद्र की आड़ में कोई चीज आजाने पर जल नहीं दिखलायी पड़ता है और जब आड़ दूर हो जाती है तो जल दिखलायी पड़ने लगता है। इसी प्रकार आत्मा के ऊपर जबतक म्रम का आच्छादन रहता है, उसका वीतराग, शान्त म्वरूप दिखलायी नहीं पड़ता और आच्छादन के दूर होने पर श्रात्मा दिखलायी पड़ने लगता है अतः साधक अपनी आत्मा का कल्याण इस निश्चय और व्यवहार दृष्टि को समझ कर ही कर सकता है। जबतक उसकी दोनो दृष्टियाँ परिष्कृत नहीं होती, वास्तविकता उसकी समझ में ही नहीं आती है / पतंगोडडे कोळगे जीव हित मुळ्ळाचार मुळ्ळग्रदोळ- / मोक्षक्कैदिसलार्प सत्कुलसुधर्मश्रीयनंतल्लदु- // दभक्षद्वेषदे कोल्व कुत्सितद शीलं तळतु सार्दात्मरं / भिक्षंगे-यव वनात्मने के पिडिवं रत्नाकराधीश्वरा // 33 / / For Private And Personal Use Only