________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विस्तृत विवेचन सहित 183 यह आत्मा न कभी घटती-बढ़ती है, न इसमें किसी भी प्रकार की विकृति आती है, इसका कर्मों के साथ भी कोई सम्बन्ध नहीं है। यह सदा उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य स्वरूप है। शुद्ध निश्चय नय से इसमें ज्ञानावरणादि आठ कर्म भी नहीं हैं; तुधा, तृषा, राग, द्वेष श्रादि अठारह दोषों के कारणों के नष्ट हो जाने से ये कार्यरूप दोष भी इसमें नहीं है / सत्ता, चैतन्य आदि शुद्ध प्राणों के होने से इन्द्रियादि दस प्राण भी नहीं हैं / इसमें रागादि विभाव-भाव भी नहीं हैं। मनुष्य इस प्रकार की निश्चय दृष्टि द्वारा अपनी आत्मरुचि को बढ़ा सकता है तथा जो विषयों की प्रतीति हो रही है उसे कम कर सकता है। ____ यद्यपि यह संसारी जीव व्यवहार नय को दृष्टि द्वारा ज्ञान के अभाव से उपार्जन किये ज्ञानावरणादि अशुभ कर्मों के निमित्त से नाना प्रकार की नर-नारकादि पर्यायों में उत्पन्न होता है, विनशता है और आप भी शुद्धज्ञान से रहित हुआ कर्मों को बान्धता है / इतना सब कुछ होने परभी शुद्ध निश्चय नय द्वारा यह जीव शक्ति का अपेक्षा से शुद्ध ही है। कर्मों से उत्पन्न नर-नारकादि पर्याय रूप यह नहीं है। केवल यह व्यवहार का खेल है, उसकी अपेक्षा कार्य-कारण भाव है। व्यवहार के निकलते ही इस जीव को अपनी प्रतीति हो जाती है तथा यह अपने को For Private And Personal Use Only