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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 182 रत्नाकर शतक बाह्यापेक्षे यिनादोडं कुलवलस्थानादि पक्षं मनःसह्य निश्चयदिदंभात्मनकुलं निर्गोत्रि निर्नामि निगुह्योद्भूतननंगनच्युतननाद्य सिद्धनेदें बुदे / ग्राह्य तत्परिभाव मे भवहरं रत्नाकराधीश्वरा // 32 // है रत्नाकराधीश्वर ! श्रात्मा वंश, बल, स्थान प्रादि से जो प्रेम करता है वह मन को व्यवहारिक रूप से भले ही न्याय सम्मत जान पड़े; किन्तु निश्चित रूप से प्रारमा कुल रहित, गोत्र रहित, नाम रहित, नाना योनियों में जन्म न लेनेवाला, शरीर रहित, आदि-अन्त रहित सिद्धस्वरूप ऐसा ग्रहण करने योग्य है / इस प्रकार के भाव से भव-सकट का नाश हो सकता है // 32 // विवेचन--- जीव और अजीव दोनों ही अनादि काल से एक क्षेत्रावगाह संयोग रूप में मिल रहे हैं और अनादि से ही पुद्गलों के संयोग से जीव की विकार सहित अनेक अवस्थाएँ हो रही हैं। यदि निश्चय नय की दृष्टि से देखा जाय तो जीव अपने चैतन्य भाव और पुद्गल अपने मूर्तिक जड़पने को नहीं छोड़ता। परन्तु जो निश्चय या परमार्थ को नहीं जानते हैं वे संयोग से उत्पन्न भावों को जीव के मानते हैं। अतः असद्व्यवहार नय की दृष्टि से वंश, बल, शरीर आदि आत्मा के हैं परन्तु, निश्चय दृष्टि से इनका आत्मा के साथ कोई सम्बन्ध नहीं / For Private And Personal Use Only
SR No.020602
Book TitleRatnakar Pacchisi Ane Prachin Sazzayadi Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmedchand Raichand Master
PublisherUmedchand Raichand Master
Publication Year1922
Total Pages195
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati
File Size10 MB
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