SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 221
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 178 रत्नाकर शतक नौका पर कुछ काल के लिये संयुक्त पथिकों के समान जान पड़ता है। वह अज्ञानी होकर मोह नहीं करता है। वह घर में रहते हुए भी घर के बन्धन में नहीं फंपता है / स्वतंत्रता प्राप्ति को ही अपना सब कुछ मानता है। ____ मोह जिसके कारण यह जीव अपने तेरे के भेद-भाव को ग्रहण करता है, ज्ञान या विवेक से ही दूर हो सकता है। जो सम्यग्दृष्टि हैं, उन्हें संसार के सम्बन्ध, वंश, गोत्र आदि अनित्य विजातीय धर्म दिखलायी पड़ते हैं। मिथ्यारुचि-वालों को ये सांसारिक बन्धन अपने प्रतीत होते हैं, वे शरीर के सुखों में उलझे रहते हैं, इस कारण वे ध्यान करते हुए भी नित्य, शुद्ध, निर्विकल्प श्रात्मतत्व को प्राप्त नहीं कर पाते हैं। उनकी दृष्टि सर्वदा बाह्य वस्तुओं की ओर रहती है, अतः साधक को सचेत होकर बाह्य वस्तुओं की ओर जानेवाली प्रवृत्ति को रोकना चाहिये / ___ जब जीव को यह प्रतीति हो जाती है कि मेरा स्वभाव कभी भी विभाव रूप नहीं हो सकता है, मेरा अस्तित्व सदा स्वाभाविक रहेगा; इसमें कभी भी विकार नहीं पा सकता है। जैसे सोना एक द्रव्य है, उसके नाना प्रकार के आभूषण बनाने पर भी सभी आभूषणों में सोना रहता है, उसके अस्तित्व का कभी नाश नहीं For Private And Personal Use Only
SR No.020602
Book TitleRatnakar Pacchisi Ane Prachin Sazzayadi Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmedchand Raichand Master
PublisherUmedchand Raichand Master
Publication Year1922
Total Pages195
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy