________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विस्तृत विवेचन सहित 177 इस प्रकार के इन्द्रिय विषय लोलुपी जीव पर-समय मिथ्यादृष्टि कहलाते हैं। ये स्त्री, पुत्र, मित्र, गाय, भैंस, सोना, चाँदी, मकान आदि के लिये अत्यन्त ललायित रहते हैं, इन पदार्थों को अपना मानते हैं। आसक्ति के कारण त्याग से दूर भागते हैं। जिनमें मनुष्य, देव आदि पर्यायों का धारी मैं हूँ तथा ये पञ्चेन्द्रिय सुख मेरे हैं, इस प्रकार का अहंकार और ममकार पूर्ण रूप से वर्तमान है वे आत्मसुख से विमुख होकर कुछ भी नहीं कर पाते हैं। उनकी ज्ञानशक्ति लुप्त या भूचित हो जाती है तथा वे शरीर को ही अपना मान लेते हैं। जिसने अहंकार और ममकार जैसे पर पदार्थों को दूर कर दिया है और जो आत्मा को ज्ञाता, द्रष्टा, आनन्द-मय, अमूर्तिक, अविनाशी, सिद्ध भगवान के समान शुद्ध समझता है, वह सम्यग्दृष्टि है जैसे रत्ल दीपक को अनेक घरों में घुमाने परभी, एक रत्नरूप ही रहता है उसी प्रकार यह आत्मा अनेक पर्यायों को ग्रहण करके भी स्वभाव से एक है। ज्ञानावरणादि द्रव्य-कमैं, राग-द्वेष आदि भाव-कर्म और शरीर आदि नोकर्म ये सब प्रात्म के शुद्ध स्वभाव से भिन्न हैं, तथा यह आत्मा अपने स्वभावों का कर्ता और भोक्ता है, जिसे ऐसी प्रतीति हो जाती है, वह व्यक्ति इन्द्रिय-भोगों से विरक्त हो जाता है। तथा उसे स्त्री, पुत्र, मित्र आदि का संयोग एक For Private And Personal Use Only