________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 176 रत्नाकर शतक कुलम गोत्रमनुर्वियं विरुदुमं पक्षोकरंगोंडुतानोलिवं तन्नवेनुत्ते लोगर वेनुत्तं निदिपं जीवनं- // डलेदेंवत्तर नाल्क लक्ष भवदोळवंदल्लि लानावुद क्कोलिवं निंदिपनावुदं निरविसा रत्नाकराधीश्वरा // 30 // हे रलाकारधीश्वर ! ____जीव अपने वंश, गोत्र, क्षेत्र, ख्याति प्रादि को ग्रहण करके 'यह मेरा है ऐसा प्रेम करता है / दूसरे का वंश गोत्र प्रादि देखकर 'यह दूसरेका है। ऐसा समझते हुए तिरस्कार करता है। चौरासी लाख योनियों में जन्म लेकर दुःख को प्राप्त होते हुए इस योनि में मनुष्य किस से प्रेम करता है ? किसकी निन्दा करता है ? प्रतिपादन करो // 30 // विवेचन - जो जीव अपने अात्म स्वरुप को भूलकर पर में आत्मा बुद्धि ग्रहण कर जिस शरीर में निवास करते हैं, उस शरीर रूप ही अपने को मानते हैं वे उस शरीर के सम्बन्धियों को अपना समझ लेते हैं / इसी कारण उनमें अहंकार और ममकार की प्रबल भावना जाग्रत होती है। शरीर में प्राप्त इन्द्रियों के विषयों के प्राधीन हो कर उनके पोषण के लिये इष्ट सामग्री के संचय और अनिष्ट सामग्री से बचने का प्रयत्न किया जाता है; जिससे इष्ट संयोग में हर्ष और इष्ट-वियोग में विषाद धारण करना पड़ता है। इन्हें धन, गृह, आदि के प्राप्त करने के लिये अन्याय तथा पर पीडाकारी कार्य करने में भी ग्लानि नहीं होती है। For Private And Personal Use Only