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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विस्तृत विवेचन सहित 173 आरारल्लद गर्भदोळबळेयनागरोदु मूत्राध्वदोळ् / वारं वंदुरे बंधुग पितृगळे देन्नं गनानीकमें। दारारेंजलनुण्ण नात्म जरे नुत्तारार दुर्गघदि / चारित्रंगिडनात्मनें भ्रमितनो रत्नाकराधीश्वरा ! // 26 // हे रत्नाकराधीश्वर ! कर्म विशिष्ट जीव ने किन किन नीच गतियों में जन्म नहीं लिया ? किसके किसके मूत्र मार्ग से नहीं गुजरा ? उस मूत्र मार्ग से बाहर पाकर "मेरा बंधु, मेरा पिता, मेरी स्त्री " इत्यादि झूठा संबंध स्थापित कर किनका किनका जूठा नहीं खाया ? मेरा पुत्र ऐसा कह किन किन की दुर्गन्ध से अपने आचरण को भ्रष्ट नहीं किया? आत्मा क्यों भ्रम में पड़ गया है ? // 26 / / विवेचन--- सैद्धान्तिक दृष्टि से विचार करने पर प्रतीत होता है कि समस्त ज्ञेय पदार्थ गुण-पर्याय सहित हैं तथा आधारभूत एक द्रव्य अनन्त गुण सहित है / द्रव्य में गुण सदा रहते हैं, अविनाशी और द्रव्य के सहभावी गुण होते हैं गुण द्रव्य में बिस्तार रूप--- चौड़ाई रूप में रहते हैं और पर्यायें आयत लम्बाई के रूप में रहती हैं, जिससे भूत, भविष्यत और वर्तमान काल में क्रमवर्ती ही होती हैं / आचार्य कुन्दकुन्दा स्वामी ने पर्याय दो प्रकार की बतायी हैं द्रव्य -पर्याय और गुण-पर्याय / For Private And Personal Use Only
SR No.020602
Book TitleRatnakar Pacchisi Ane Prachin Sazzayadi Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmedchand Raichand Master
PublisherUmedchand Raichand Master
Publication Year1922
Total Pages195
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati
File Size10 MB
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