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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 172 रत्नाकर शतक वे सब इस जीव के नहीं हैं। आवश्यकता पड़ने पर इनसे आत्मा का कुछ भी उपकार नहीं हो सकता है। यह जीव अकेला ही अपने कृत्यों के कारण दुर्गति या सद्गति को प्राप्त होता है, इस के सुख, दुःख का कोई साझीदार नहीं ! सभी स्वार्थ के साथी हैं, दुःख-विपत्ति में कोई किसी का नहीं। जब मनुष्य को आत्मबोध हो जाता है, राग द्वेष दूर हो जाते हैं, संसार की वस्तु-स्थिति उसकी समझ में आ जाती है तब वह कामिनी और कंचन से विरक्त हो आत्म-चिन्तन में लग जाता है। अनेक भावों से लेकर इस जीव ने अबतक विषय भोगे हैं, नाना प्रकार के रिश्ते ग्रहण किये हैं, पर क्या उन भोगों से और उन रिश्तों से इसको शान्ति और संतोष हुआ ? क्या कभी इसने अपने पूर्व जन्मों का स्मरण कर अपने कर्तव्य को समझा ? यदि एक बार भी यह जीव अपने जीवन का विश्लेषण कर लें, उसके रहस्य को समझ ले तो फिर इसे इतना मोह नहीं जकड़े; मोह की रस्सी ढीली पड़ जाय तथा कर्म बन्धन शिथिल पड़ जायें और यह अपने उद्धार में अग्रसर हो जाय / इसे प्रतिक्षण में होनेवाली अपनी क्रमभावी पर्याय समझ में आजायें और यह अन्य द्रव्यों से अपने ममत्व को दूर कर स्वरूप में लग जावे / For Private And Personal Use Only
SR No.020602
Book TitleRatnakar Pacchisi Ane Prachin Sazzayadi Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmedchand Raichand Master
PublisherUmedchand Raichand Master
Publication Year1922
Total Pages195
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati
File Size10 MB
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