________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विस्तृत विवेचन सहित 171 रहता है, पक्षी उसपर निवास करते हैं, बृक्ष के सूख जाने पर एक भी पक्षी उस पर नहीं रहता, इसी प्रकार जब तक स्त्री, पुत्र, माता पिता आदि कुटुम्चियों का स्वार्थ सिद्ध होता है अपने बनते हैं। स्वार्थ के निकल जाने पर मुंह से भी नहीं बोलते हैं; अतः कोई भी अपना नहीं है / यह जीव अकेला ही सुख, दुख का भोक्ता है / कविवर वनारसी दास जी ने उपर्युक्त भाव को स्पष्ट करते हुए कहा है। मातु, पिता सुत बन्धु सखीज ; मति हितू सुख काम न पीके / सेवक साज मतंगज बाज; महादल राज रथी रथनीके // दुर्गति जाय दुखी विललाय, पैर सिर आय अकेलहि जीके / पंथ कुपंथ गुरू समझावत; और सगे सब स्वारथहींके / अर्थ--माता, पिता, पुत्र, स्त्री, भाई बन्धु, मित्र,हितैषी कोई भी अपना नहीं है; सब स्वार्थ के हैं। सवेक संगी-साथी, मदोन्मत्त हाथी, घोड़ा, स्थ, मोटर, आदि जितने भी भौतिक पदार्थ हैं, For Private And Personal Use Only