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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 168 रत्नाकर शतक धर्मकार्ये मतिस्तावद्यावदायहढं तव / ___ आयकर्मणि संक्षीणे पश्चात्त्वं किं करिष्यसि / / मृता नैव मृतास्ते तुये नरा धर्मकारिणः / जीवन्तो ऽपि मृतास्ते वै ये नराः पापकरिणः // धर्मामृतं सदा पेयं दूःखातऋविनाशनम् / ___अस्मिन् पीते परम सौख्यं जीवानं जायते सदा // अर्थ-- संसार के अन्य व्यापारों कार्यों और प्रयत्नों को छोड़कर धर्म में सदा लगे रहना चाहिये। धर्म ही मोक्ष प्राप्ति पर्यन्त सुखका साधन है। निश्चय ही धर्म के द्वारा निर्वाण मिल सकता है, इसी के द्वारा स्वानुभूति हो सकती है / अतएव एक क्षण के लिये भी सद्धर्म का त्याग नहीं करना चाहिये। जरा भी असावधानी होने से कषाय, इन्द्रियासक्ति और मन की चंचलता आत्मनुभूति रूपी धन को चुरा लेगी, अतएव साधक को या अपना हित चाहनेवाले को कषाय और इन्द्रिया-सक्ति से अपनी रक्षा करनी चाहिये। आत्मा के अखण्ड चेतन स्वभाव को विषय-कषायें ही दूषित करती हैं, अतः इनका त्याग देना श्रावश्यक है / सच्ची वीरता इन विकारों के त्यागने में ही है / जबतक आयु शेष है, शरीर में साधन करने की शक्ति है, इन्दिय नियंत्रण करना चाहिये / आयु के समाप्त होने पर इस शरीर For Private And Personal Use Only
SR No.020602
Book TitleRatnakar Pacchisi Ane Prachin Sazzayadi Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmedchand Raichand Master
PublisherUmedchand Raichand Master
Publication Year1922
Total Pages195
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati
File Size10 MB
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