________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विस्तृत विवेचन सहित 167 भूल जाता है, उनकी प्राप्ति की इच्छा नहीं करता / आत्मा के लिये मोह, अज्ञान, और माया से उत्पन्न यह कितना बड़ा भ्रम है ? // 27 // विवेचन- आचार्य ने उपयुक्त श्लोक में आत्मा की नित्यता और शरीर की अनित्यता बतलायी है / जीव एक भव के माता, पिता, स्त्री, पुत्र आदि को रोते, विलखते छोड़ दूसरे शरीर में चला जाता है। जब यह दूसरे शरीर में पहुंचता है तो उस भव के माता-पिता इसके स्नेही बन जाते हैं तथा यह पहले भव-जन्म के माता-पिता से प्रेम छोड़ देता है। इस प्रकार इस जीव के माता-पिता अनन्तानन्त हैं, मोहवश यह अनेक सगे सम्बन्धियों की कल्पना करता है / वास्तव में इसका कोई भी अन्य अपना नहीं है, केवल इसके निजी गुण ही अपने हैं। अतः संसार के विषय-कषाय और मोह-माया को छोड़ आत्म-कल्याण और धर्म साधन की ओर झुकना प्रत्येक व्यक्ति का परम कर्तव्य है। श्रीभद्राचार्यने सार समुच्चय में धर्म साधन की महिमा तथा उसके धारण करने की आवश्यकता बतलाते हुए कहा है। धर्म एव सदा कार्यो मुत्त्वा व्यापार मन्यतः / यः करोति परं सौख्यं यावन्निर्वाणसंगमः // क्षणेऽपि समतिकान्ते सद्धम परिवर्जिते / आत्मानं मुषितं मन्ये कषायेन्द्रियतरैः // For Private And Personal Use Only