________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रत्नाकर शतक एक बून्द भी पानी पीने को नहीं मिलता। वहाँ अन्न-पानो का बड़ा भारी कष्ट है, इसके अलावा शारीरिक, मानसिक नाना प्रकार के कष्ट होते हैं, अतएव सोचना चाहिये कि संकट में मैं क्यों विचलित हो रहा हूँ। मेरी आत्मा का इस पीड़ा या व्यथा से कोई सम्बन्ध नहीं है, आत्मा न कभी कटती है, न जलती है, न मरती है, न गलती है। यह नित्य, अखण्ड ज्ञान स्वरूप है। मुझे अपने स्वरूप में लीन होना चाहिये, इस शरीर के आधीन होने की मुझे कोई अवश्यकता नहीं / अतः विपत्ति के समय अर्हन्त और सिद्ध का चिन्तन ही कल्याणकारी हो सकता। तायं तयनासेवट्टलुते सावंसत्तु बेरन्यरा-। कायंवोक्कोगेयं वळिक्कवरुमं तायतंदेवेंदप्पि कों-॥ डायेंदाडुवनितलंदु पडेदर्गिच्छै सनात्मगिदें / माया मोहमो पेळवुदेननकटा ! हे रत्नाकराधीश्वरा ! // 27 // हे रत्नाकराधीश्वर ! मृत्यु के समय मनुष्य माता-पिता-स्त्री-पुत्र प्रादि के प्रेम के वश में होकर रुदन करते हुए शरीर का त्याग करता है। वह पुनः अन्यत्र शरीर धारण करता है / इस जन्म के माता पिता उसे प्यार करते हैं, उस के शरीर से चिपकते हैं और उस के साथ प्रेम भरी बातें करके विनोद करते हैं। इसप्रकार मनुष्य अपने पूर्व जन्म के माता-पिता को For Private And Personal Use Only