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रत्नाकर शतक
शरीर के ऊपर प्रेम रखकर शाश्वत आत्मस्वरूप को भूल गया है, जिससे यह अपने इस दुर्लभ नरभव को यों ही बिताना चाहता है । इन्द्रियाँ और मन को आधीन कर विषयों की प्रवृत्ति को रोकने में ही नरभव प्राप्ति की सार्थकता है । बाईसवें पद्य में आवागमन के चक्र का कथन करते हुए प्रभुभक्ति करने के लिये संकेत किया है । तेईसवें पद्य में बताया है कि यह जीव अनेक प्रकार के प्राणियों की कुक्षि से जन्म लेकर आया है । नाना प्रकार के कार और वेष धारण किये हैं, शरीर के लिये नाना कार्य किये हैं । श्रहारादि करते करते अनेक जन्म बिता दिये हैं, तो भी इच्छा की पूर्ति नहीं हुई । अतएव भगवान् जिनेन्द्र की पूजा करना, उनके गुणों में तल्लीन होना कर्मबन्ध को छेदने का सुगम मार्ग है। चौबीसवें पद्य में इस शरीर की अशुद्धता का कथन करते हुए आत्मकल्याण के लिये जोर दिया है । पच्चीसवें में क्षणिक वैराग्य का दिग्दर्शन कराते हुए स्थायी वैराग्य प्राप्त करने के लिये संसार - स्वरूप का निरूपण किया है । छब्बीसवें पद्य में बताया है कि विपत्ति या संकट के आने पर हाय-हाय करना ठीक नहीं, इससे आगे के लिये अशुभ कर्मों का आस्रव ही होता है । अतः संकट के समय पंचपरमेष्ठी के गुणों का चिन्तन करना चाहिये ।
सत्ताईसवें में मृत्यु के समय मोह त्याग करने के लिये कहा
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