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प्रस्तावना
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जो व्यक्ति आत्म
आत्मकल्याण की ओर प्रवृत्त होना चाहिये । कल्याण के लिये अवसर की तलाश में रहता है, उसे कभी भी मौका नहीं मिलता, वह असमय में ही इस संसार को छोड़कर चल देता है। अतः आत्मकल्याण जितनी जल्दी हो सके, करना चाहिये । पन्द्रहवें पद्य में नाना जन्म-मरणों का कथन करते हुए उनके सम्बन्धों की निस्सारता का कथन किया है । सोलहवें पद्य में बताया है कि जिस व्यक्ति ने कभी दान नहीं दिया, जिसने कभी तपस्या नहीं की, जिसने समाधिमरण नहीं किया उसके मरने पर सम्बन्धियों को शोक करना उचित है, क्योंकि उसका जन्म ऐसे ही बीत गया । आत्मकल्याण करनेवाले व्यक्ति का जीवन सार्थक है, उसके मरने पर शोक नहीं करना चाहिये; क्योंकि ऐसा व्यक्ति अपने कर्त्तव्य को पूरा कर गया है। सत्रहवें पद्य में मृत्यु की अनिवार्यता का कथन करते हुए पुनर्जन्म पर जोर दिया है ।
अठारहवें पद्य में पंचपरमेष्ठी के चिन्तन और स्मरण की आवश्यकता बतायी गयी है । उन्नीसवें में संसार के पदार्थों की आत्मा से भिन्नता बताते हुए आत्म तत्त्व को प्राप्त करने के लिये विशेष जोर दिया है। बीसवें पद्य में धन, वैभव आदि की निस्सारता बतलाते हुए रत्नत्रय की उपलब्धि को ही कल्याणकारी बताया है। इक्कीसवें पद्य में बताया है कि नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य, देव पर्याय में अनादिकाल से चक्कर खाता हुआ यह जीव नाशवान