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स्नाकर शतक
में आत्मा का अधिष्ठान बताया है। आठवें में बताया है कि यह आत्मा कभी धूप से निस्तेज नहीं होता, पानी से गलता नहीं, तलवार से कटता नहीं, इसमें भूख-प्यास आदि बाधाएँ भी नहीं हैं। यह बिल्कुल शुद्ध, शान्त, सुखस्वरूप, चैतन्य, ज्ञाता, द्रष्टा है।
नौवें पद्य में बताया है कि अनादिकालीन कर्म सन्तान के कारण इस आत्मा को यह शरीर प्राप्त हुआ है। शरीर में इन्द्रियाँ हैं, इन्द्रियों से विषय ग्रहण होता है, विषय ग्रहण से नवीन कर्म बन्धन होता है, इस प्रकार यह कर्म परम्परा चली आती है । इसका नाश आत्मा के पृथक्त्त्व चिन्तन द्वारा किया जा सकता है। दसर्व पद्य में आत्मा और शरीर के सम्बन्ध का कथन करते हुए उन दोनों के भिन्नत्व को बताया है। ग्यारहवें पद्य में बताया है कि भोग और कषायों के कारण यह आत्मा विकृत और कर्मरूपी धल को ग्रहण कर भारी होता जा रहा है। स्वभावतः यह शुद्ध, बुद्ध और निष्कलंक है, पर वैभाविक शक्ति के परिणमन के कारण योग-कषाय रूप प्रवृत्त होती है, जिससे द्रव्यकर्म और भाव कर्मों का संचय होता जाता है। __बारहवें पद्य में भेदविज्ञान की दृष्टि को स्पष्ट किया है । तेरह। पद्य में शरीर, धन, कुटुम्ब आदि की क्षणभंगुरता को बतलाते हुए इन पदार्थों से मोह को दूर करने पर जोर दिया है । चौदहवें पद्य में बताया है कि यह मनुष्य शरीर नाशवान है, इसे प्राप्त कर
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