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प्रस्तावना
"ज्ञान, दर्शन, मय एक अविनाशी आत्मा ही मेरा है। शुभाशुभ कर्मों के संयोग से उत्पन्न हुए शेष सभी पदार्थ बाह्य हैं-मुझ से भिन्न हैं, मेरे नहीं हैं।" पर विशेष जोर दिया गया है।
तीसरे पद्य में सात तत्व, छः द्रव्य, पाँच अस्तिकाय और नौ पदार्थों का स्वरूप विस्तार सहित बताया गया है। चौथे पद्य में बताया है कि आत्मा की स्थिति को ज्ञान के द्वारा देख सकते हैं। जिस प्रकार स्थल शरीर इन चर्म चक्षुओं को गोचर है, उस प्रकार आत्मा गोचर नहीं है । स्थूल के पीछे सूक्ष्म इस प्रकार विद्यमान है जिस प्रकार पत्थर में सोना, पुष्प में पराग, दूध में सुगन्ध तथा घी और लकड़ी में आग । शरीर के अन्दर आत्मा की स्थिति को इस प्रकार जानकर अभ्यास करने से प्रात्मा की प्रतीति होने लगती है। पाँचवें पद्य में बताया है कि आत्मा शरीर से भिन्न ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य आदि गुणों का धारी होने पर भी कमों के बन्धन के कारण इस शरीर में निवास कर रहा है, इसकी अनुभूति भेद विज्ञान द्वारा की जा सकती है। छटवें पद्य में बताया है कि जैसे कनकोपल के शोधने पर सोना, दूध के मथने पर नवनीत और लकड़ी के घर्षण करने पर अग्नि उत्पन्न होती है, उसी प्रकार 'शरीर अलग है और मैं अलग हूँ! इस भेदविज्ञान क अभ्यास द्वारा आत्मा की उपलब्धि होती है। सातवें पद्य में प्रत्येक आत्मा को परमात्मा की शक्ति का धारी तथा समस्त शरीर
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