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रत्नाकर शतक
शतक में भोग और त्रैलोक्य का आकार-प्रकार, लोक की लम्बाई चौड़ाई आदि का कथन किया गया है। प्रत्येक शतक में एक-सौ अट्ठाईस पद्य हैं।
रत्नाकराधीश्वर शतक का विषय निरूपण इस शतक में १२८ पद्य हैं; जिनमें से प्रथम भाग में केवल ५० पद्य ही दिये जा रहे हैं। यों तो इस समस्त ग्रन्थ में प्रात्म तत्त्व और वैराग्य का प्रतिपादन किया गया है, पर यहाँ पर इस प्रथम भाग में आये हुए पद्यों का संक्षिप्त सार ही दिया जायेगा। यह ग्रन्थ
आत्म-तत्त्व के रसिकों के लिये अत्यन्त उपादेय होगा, कोई भी साधक इसके अध्ययन द्वारा आत्मोत्थान की प्रेरणा प्राप्त कर सकता है ।
प्रथम पद्य में वस्त्राभरणों द्वारा शरीर को अलंकृत करने की निस्सारता का निरूपण करते हुए रत्नत्रय के धारण करने पर जोर दिया है । यह शरीर इतना अपवित्र है कि सुन्दर, सुगन्धित वातुएँ इसके स्पर्शमात्र से आपवित्रत हो जाती हैं । अतः वस्त्राभूषण इसके अलंकार नहीं; किन्तु सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ही इसे सुशोभित कर सकते हैं। ये ही आत्मा के सच्चे कल्याणकारी अलंकार हैं। दूसरे पद्य में रत्नत्रय-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र के स्वरूप का कथन किया है ।
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