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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रस्तावना है । मरण - समय परिणामों में समता रहने से आत्मा का अधिक कल्याण हो सकता है । श्रतः समाधिमरण करना जीव का एक आवश्यक कर्तव्य है । अट्ठाईसवें और उन्तीसवें पद्य में सांसारिक नाते-रिश्तों के छीछालेदर को प्रकट करते हुए जन्म-मरण को सन्तति और उसके दुःखों को बतलाया है । तीसवें पद्य में बताया है कि आत्मा का कोई वंश, गोत्र और कुल नहीं है । यह वीज चौरासी लाख योनि में जन्मा है, तब इसका कौनसा वंश माना जाय ? इकत्तीस और बत्तीसवें पद्य में श्रात्मा को कुल, गोत्र आदि से भिन्न सिद्ध करते हुए विकारों को वश करने के लिये बताया है । तेतीसवे पद्य में आत्म-हितकारी चारित्र को ग्रहण करने के लिये जोर दिया है । चौतीसवें में आत्मा की अचिन्त्य शक्ति का कथन करते हुए उसे अजेय, बताया है । पैंतीसवें में बताया है कि पाप जीव को नरक की ओर और पुण्य स्वर्ग की ओर ले जाता है । पाप और पुण्य दोनों मिलकर चतुर्गतियों में जीव को उत्पन्न करते हैं, पर यह सभी नित्य है । छत्तीसवें पद्य से लेकर इकतालीसवें पद्य तक पुण्य और पाप के फलों का विवेचन किया है तथा पुण्यानुबन्धी पुण्य, पुण्यानुबन्धी पाप पापानुबन्धी पुराय, पापानुबन्धी पाप, इन चारों का वर्णन किया है । पुण्य और पाप ये दोनों ही आत्मा के स्वरूप नहीं हैं, इनका आत्मा से कोई सम्बन्ध नहीं । आत्मा शुद्ध है, निष्कलंक I For Private And Personal Use Only
SR No.020602
Book TitleRatnakar Pacchisi Ane Prachin Sazzayadi Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmedchand Raichand Master
PublisherUmedchand Raichand Master
Publication Year1922
Total Pages195
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati
File Size10 MB
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