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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रत्नाकर शतक से तथा इन्हीं के समान ताड़न, तर्जन, चिन्ता, शोक, रुदन, विलाप आदि के करने से असाला वेदनीय का यात्रव होता है। इस कर्म के उदय से जीव को कष्ट ही भोगना पड़ता है। अतः दुःख के आजाने पर उससे विचलित न होना चाहिये उसके कमा होने का एकमात्र उपाय सहनशीलता है। दुःख पश्चात्ताप या क्रन्दन करने से घटता नहीं, आगे के लिये और भी अशुभ कर्मों का बन्ध होता है, जिससे यह जीव निरन्तर पाप पंक में फसता जाता है। साधक को दुःख होने पर भी अविचलित रूप से शुद्ध प्रात्म के रूप सिद्धपरमेष्ठी का चिन्तन करना चाहिये। ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, अगुरुलघुत्व इन गुणों के धारी सिद्ध परमेष्ठी का विचार करना तथा संसार से विरक्ति मात कर प्रात्योत्थान करना ही जीवन का ध्येय है। दुःव तभी तक होता है, जबना पर पदार्थों से मोह रहता है। मोह के वशीभूत होकर ही यह जीव अन्य पदार्थों में, जोकि इसझे सर्वथा भिन्न हैं, अपनत्व बुद्धि काता है, इसीसे अन्य के संयोग-विभोग में सुख-दुःख का अनुभव होता है। जब यह शरीर ही अपना नहीं तो दूरवर्ती स्त्री, पुत्र, धन, वैभव कैसे अपने हो सकते हैं ? मोहवश परपदार्थों से अनुरक्ति करना व्यर्थ है। दुःख आत्मा में कभी उत्पन्न ही नहीं होता यह आत्मा सदा For Private And Personal Use Only
SR No.020602
Book TitleRatnakar Pacchisi Ane Prachin Sazzayadi Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmedchand Raichand Master
PublisherUmedchand Raichand Master
Publication Year1922
Total Pages195
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati
File Size10 MB
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