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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रत्नाकर शतक 161 स्मरण करता है वही सुख का अनुभव करता है // 26 // विवेचन- शारीरिक कष्टके आने पर जो व्यथा से पीडित होकर हाय-हाय करते हैं, उससे अशुभ कर्मों का और बन्ध होता है / रोग और विपत्ति में विचलित होने से संकट और बढ जाता है अतः धैर्य और शान्ति के साथ कष्टों को सहन करना चाहिये / सहन शोलता एक ऐसा गुण है, जिससे यात्मिक शक्ति का विकाश होता है / दुःख पड़ने पर पधातार या शोक करने से असाता वेदनीय-दुःख देनेवाले कर्मका आस्रव होता है। श्री आचार्य उमास्वामि महाराजने बताया है। दुःखशोकतापाकन्दनवधपरिवेदनान्यात्मपरोभयस्थानान्यसदद्यस्य / दुःख, शोक, ताप, आक्रन्दन, वध, परिवेदन निज आत्मा में, पर में या दोनों में स्थित असातावेदनीय के बन्ध हेतु हैं। बाह्य या आन्तरिक निमित्त से पीड़ा का होना दुःख है / किसी हितैषी के सम्बन्ध छूटने से जो चिन्ता व खेद होता है वह शोक कहलाता है। अपमान से मन कलुषित होने के कारण जो तीव्र संताप होता है वह ताप कहलाता है। गदगद स्वर से आंसू बहाते हुए रोनापीटना आक्रन्दन है। किसी के प्राण लेना बध है, किसी व्यक्ति का विछोह हो जाने पर उसके गुणों का स्मरण कर करुणाजनक क्रन्दन करना परिवेदन है / इन छः प्रकार के दुःखों के करने For Private And Personal Use Only
SR No.020602
Book TitleRatnakar Pacchisi Ane Prachin Sazzayadi Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmedchand Raichand Master
PublisherUmedchand Raichand Master
Publication Year1922
Total Pages195
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati
File Size10 MB
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