________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विस्तृत विवेचन सहित आस्तित्व रखते हैं, अतः इन्हें मैं अपना क्यों समझ रहा हूँ। ये कुटुम्बी आज मेरे हैं, कल नहीं भी रहेंगे। दूसरा शरीर धारण करने पर मुझे दूसरे कुटुम्बी मिलेंगे अतः यह रिश्ता सच्चा नहीं, झूठा है। संसार स्वार्थ का दास है, जब तक मुझ से स्वार्थ की पूर्ति दूसरों की होती है, तब तक वे मुझे भ्रमवश अपना मानते हैं, स्वार्थ के निकल जाने पर कोई किसीको नहीं मानता। अतः मुझे अपने स्वरूप में रमण करना चाहिये। मेय्योळ्तोरिद रोगदि मनके बंदायासदि भीति ब - दृय्यो ! एदोडे सिद्धियें जनकनं तायं पलुंवल्क दे-॥ गेय्यल्कार्परो तावु मुम्मसुिवकूडेंदोडा जिव्हेये म्मय्या ! सिद्धजिनेशयंदोडे सुखं रत्नाकराधीश्वरा ! / / 26 / / हे रत्नाकराधीश्वर! __ शरीर के दुःख से दुःखित होकर अपनी व्यथा को प्रकट करने के लिए मनुष्य 'हा' ऐसा शब्द करता है। किन्तु ऐसा कहने से क्या अपने स्वरूप की प्राप्ति होगी ! रोग से श्राकान्त होकर यदि माता-पिता का कोई स्मरण करे तो क्या वैसा करने से उसको रोग से छुटकारा मिलेगा ? जो लोग ऐसा करते हैं वे अपने लिए दुःख को ही बुलाते हैं। ऐसा समझ कर ऐसे समय में जो अपने पूज्यसिद्ध, परमेष्ठी जिनेश्वर का For Private And Personal Use Only