________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रत्नाकर शतक 156 पड़ता है। अतः अपनी आत्मा को संसार के सब पदार्थों से भिन्न समझकर इन विषय भोगों से विरक्त जीव पृथक होता है / जब तक यह श्मशान वैराग्य-क्षणिक वैराग्य रहता है, जीव कल्याण की ओर जाता है। किन्तु जैसे ही सांसारिक सुख उसे मिले, मोहवश वह सब कुछ भूल जाता है। इन्द्रिय सुखों के प्राप्त होने पर आत्मिक सुख को यह जीव भूल जाता है। अतएव सुख के दिनों में भी संसार और शरीर से विरक्ति प्राप्त करनी चाहिये। सुख का वैराग्य स्थिर होता है, साधक इस प्रकार के वैराग्य द्वारा अपनी आत्मा का कल्याण कर लेता है। वह अनित्य और नाशवान् पदार्थों से पृथक् हो जाता है, पर को अपना समझने रूप मिथ्या प्रतीति उसकी दूर हो जाती है / स्त्री, पुत्र, धन, यौवन, स्वामित्व प्रभृति पदार्थों की अनित्यता उसके सामने आ जाती है। इन पर पदार्थों में जो उसका मोह हो गया है, उससे भी वह दूर हो जाता है / वह सोचता है कि मेरा आत्मा स्वतन्त्र आस्तित्व वाला है। स्त्री, पुत्र, रिश्तेदार श्रादि की आत्माओं से इसका कोई सम्बन्ध नहीं है। मैंने मोह के कारण इन पर पदार्थों में आत्म-बुद्धि कर ली है, अतः इस मोह को दूर करना चाहिये। वैसे तो ये पदार्थ मेरे हैं ही नहीं, ये तो स्वतन्त्र अपना For Private And Personal Use Only