________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 158 विस्तृत विवेचन सहित वह संसार की क्षणभंगुरता, स्वार्थपरता और उसके संघर्षों को देखकर विचलित हो जाता है, इन्हें आत्मा के लिये अहित कर समझता है। क्षणिक विरक्ति के आवेश में संसार का खोखलापन सामने आता है। सुख भोग असार है, अनित्य और नाशवान् हैं / ये सर्वदा रहने वाले नहीं; आज जो धन के मद में चूर, लक्ष्मी का लाल माना जाता है, कल वही दर-दर का भिखारी बन जाता है; आज जो जवान है, अकड़कर चलता है, एक ही मुक्के से सैकड़ों को धराशायी कर सकता है, कल वही बुढ़ापे के कारगा लकड़ी टेक कर चलता हुआ दिखलागी पड़ता है। ओ श्राज सुन्दर स्वस्थ है जिसे सभी लोग प्रेम करते हैं, वही कल रोगी होकर बदसरत हो जाता है। तात्पर्य यह है कि यौवन, धन, शरीर, प्रभुता, वैभव ये सब अनित्य और चंचल हैं, अतः दुःख के कारण हैं। शरीर में रोग. लाभ में हानि, जीत में हार, भोग में व्याधि, मंयोग में वियोग, सुख में दुःख लगा हुआ है। विषय भोगों में भी सुख नहीं। ये केले के पत्ते के समान निस्सार हैं, मनुष्य मोहवश इनमें फँसा रहता है। जब मृत्यु नाती है तो मनुष्य को इन विषय भोगों से पृथक् होना ही For Private And Personal Use Only