________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रत्नाकर शतक 157 चिन्तत और पर्यायलोचन करने से शुद्धात्मा की अनुभूति होने लगती है जिससे जीव स्वतः अपने कल्याण मार्ग में लग जाता है साधक के चंवल मन को भक्ति स्थिर कर देती है, भक्ति के अवलम्बन से साधक अपनी अनुभूति की ओर बढ़ता है। यही भगवान की रक्षा करना है, यही उनका साधक को सहारा देना है / दारिधं कविदंदु पायदु पगेगळ्मासंकेगोंडंदु दुविर व्याधि गळोत्तिदंदु मनदोळ निर्बेग मक्कुं बळि-॥ क्कारोगं कळेदंदु वैरि लय वादंदर्भ वादंदि दें। वैराग्यं तलेदोर दंडिसुबुदो ! रत्नाकरा धीश्वरा ! // 25 / / हे रत्नाकराधीश्वर ! दरिद्रता के समय, शत्रु के अाक्रमण से भयभीत हो जाने के समय तथा दुसाध्य रोग से आक्रान्त हो जाने से मनुष्य में वैराग्य उत्पन्न होता है। किन्तु व्याधि के नष्ट होने, शत्र के परास्त होने तथा सम्पत्ति के पुनः प्राप्त होने पर यदि वैराग्य उत्पन्न न हो तो संसार से पृथक नहीं हुआ जा सकता, भावार्थ यह कि सुख में वैराग्य का उत्पन्न होना श्रेयस्कर है ! // 25 // वीचन---- मनुष्य को दुःख आने पर, दरिद्रता से पीड़ित होने पर, असाध्य रोग के हो जाने पर, किसी बड़े संकट के आने पर, तथा किसी को मृत्यु हो जाने पर संसार से विरक्ति होती है / For Private And Personal Use Only