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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 154 विस्तृत विवेचन सहित दैन्य, स्वभाव-हानि, पर परिणति की ओर जाना, मिथ्या प्रतिभास आदि बातें दूर हो जाती हैं और ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य-रूप निज परिणति की प्राप्ति होती है। ऐसा कौन सा लौकिक कार्य है जो प्रभु-भक्ति के प्रसाद से न किया जा सके। भक्त का हृदय दर्पण के समान निर्मल हो जाता है, उसकी अपनी समस्त शक्तियाँ उबुद्ध हो जाती हैं। अय्यो ! कुत्सितयोनियोळनुसुळवू देत्तानेत्त चिः नारु वी। मेय्येत्तेन्नय निर्मल प्रकृतियेन्ति देहज व्याधियि / / पुय्यल्वेत्तिहुदेत्त लेन निजवेत्तोय्देन निम्मत्त द म्मय्या रक्षिसु रक्षिसा तळुविदें रत्नाकराधोश्वरा! / / 24 // हे रत्नाकराधीस्वर ! ___ मल और दुर्गन्ध से युक्त इस निंद्य शरीर में जाने के लिये क्या मैंने कहा है कि मेरा स्वभाव परिशुद्ध है ? क्या मैंने नहीं कहा कि इस शरीर से रोग और रोग से दुःख उत्पन्न होता है ? क्या मैंने नहीं कहा कि मेरा यथार्थ ऐसा स्वरूप है ? हे धर्माधिपते ! अपने हाथ का सहारा देकर श्राप मेरी रक्षा करें, इसमें विलम्ब क्यों प्रभो ! / / 24 / / विवेचन---यह जीव अपनी स्वपरिणति को भूलकर, अपने पुरुषार्थ से च्युत होकर इस निद्य शरीर को धारण करता है। शरीर मल मूत्र का ढेर है, नितान्त अपवित्र है, जड़ है, इसका For Private And Personal Use Only
SR No.020602
Book TitleRatnakar Pacchisi Ane Prachin Sazzayadi Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmedchand Raichand Master
PublisherUmedchand Raichand Master
Publication Year1922
Total Pages195
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati
File Size10 MB
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