________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रत्नाकर शतक 153 से भावना शून्य-भक्ति करता चला आ रहा है, पर अब तक इसका उद्धार नहीं हुआ। प्रभु भक्ति करनेवाला संसार में कभी दुःखी, दरिद्री, रोगी, पातकी नहीं हो सकता है। उसकी कषायें मन्द हो जाती हैं ! भगवान् की मूर्ति की अनुकम्पा से कलुषित भावनाएँ हृदय से निकाल जाती हैं, और वह शुद्ध हो जाता है। स्वामी कुन्द-कुन्द ने अपने पचनसार में बताया है___"जो अरिहन्त को द्रव्य, गुण और पर्याय रूप से जानता है, वह अपने आप को जानता है और उसका मोह अवश्य नष्ट हो जाता है। अभिप्राय यह है कि जो अरिहन्त का स्वरूप है, स्वभाव दृष्टि से वही आत्मा का स्वरूप है. जो इस बात को समझ कर दृढ़ आस्था कर लेता है, वह अपने पुरुषार्थ की वृद्धि द्वारा अपने चारित्र को उत्तरोत्तर विकसित करता चला जाता है / मोह अरिहन्त की भक्ति से दूर हो जाता है / आत्मा के गुणों को आच्छादित करने वाला मोह ही सब से प्रबल है, इसके दूर किये बिना निर्मल चारित्र की उपलब्धि नहीं हो सकती है। सच्चे देव, शास्त्र और गुरु की भक्ति करने से निजानन्द की प्राप्ति होती है, सम्यग्दर्शन निर्मल होता है, अात्मा का ज्ञान गुण प्रकट होता है और सदाचार की प्राप्ति होती है। प्रभु-भक्ति वह रसायन है जिसके प्रभाव से अज्ञान, दुःख, For Private And Personal Use Only