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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org रत्नाकर शतक Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only १४३ जीव को अपने श्राधीन इतना कर लिया है कि जीव एक कदम भी आगे पीछे नहीं हट सकता है। इसी कारण जीव को चारों गतियों में भ्रमण करना पड़ता है । दिन-रात विषयाकांक्षा के रहने से इस जीव को कल्याण की सुध कभी नहीं आती । जब आयु समाप्त हो जाती है, मरने लगता है, आँखों की दृष्टि घट जाती है, कमर झुक जाती है, मुंह से लार टपकने लगती है तो इस जीव को अपनी करनी याद आती है, पश्चात्ताप करता है, पर उस समय इसके पछताने से कुछ होता नहीं । अतएव प्रत्येक व्यक्ति को पूर्वा पर विचार कर चतुर्गति के भ्रमण को दूर करनेवाले आत्मज्ञान को प्राप्त करना चाहिये । आत्मा में ज्ञान है, सुख है, शान्ति है शक्ति है, और है यह अजर-अमर । जो श्रम सारे संसार को जानने, देखनेवाला है; जिसमें अपरिमित बल है, वह आत्मा मैं ही हूँ । मेरा संसार के विषयों से कुछ भी सम्बन्ध नहीं जो अपने आत्म बल पर पूर्ण विश्वास कर आत्म शक्ति को प्रकट करने की चेष्टा करता है, उसे कोई भी विघ्न-बाधा विचलित नहीं कर सकती है । महान् विपत्तियों के समय भी उसकी आत्म श्रद्धा, विषय- विरक्ति और अटल विश्वास कल्याण से विमुख नहीं होने देते हैं । आत्मिक सुख शाश्वत है, चिरन्तन है इसे कोई भी मलिन नहीं
SR No.020602
Book TitleRatnakar Pacchisi Ane Prachin Sazzayadi Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmedchand Raichand Master
PublisherUmedchand Raichand Master
Publication Year1922
Total Pages195
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati
File Size10 MB
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