________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
विस्तृत विवेचन सहित
कर सकता है। अज्ञानावस्था में जो बन्ध किये हैं, उनके अतिरिक्त नवीन कर्मों का सम्बन्ध आत्मा के साथ नहीं होगा इस प्रकार दृढ़ विश्वास कर नाशवान् शरीर से आम्था छोड़ जो श्रात्म-विश्वास में लग जाता है, उसका कल्याण अवश्य हो जाता है। ___ जब तक जीव आत्मिक सुख को भूल भ्रान्ति-वश इन्द्रिय सुख को अपना समझता है, दुःख का अनुभव करता है। पाप या कालुष्य उसे कल्याण से विमुख करते हैं। पाप और पुण्य उसके स्वभाव नहीं, बल्कि ये विपरीत प्रयत्नों के फल हैं। जब आत्मा अपने निजी रास्ते पर आ जाता है तो ये पाप और पुण्य नष्ट हो जाते हैं। जीव में जैसे-जैसे दृढ़ आत्म-विश्वास प्रकट होता जाता है, कर्म संयोग जन्य-भाव पृथक् होते जाते हैं। इन्द्रियों के मोहक रूपों को देखकर फिसल जाना कायरता है, सच्ची वीरता इन्द्रियों को अपने आधीन करने में है। भाग्य या अदृष्ट तो अपना बनाया हुआ होता है, जब तक उसे जीव अपना समझता है, बन्धन का कार्य करता है, परन्तु जब जीव उसे अपने स्वभाव से पृथक् समझ लेता है और अपने आत्मा को उससे निर्लिप्त मान लेता है तो फिर आस्रव और बन्ध दोनों ही तत्त्व उससे अलग हो जाते हैं। आत्मा में अनन्त शक्ति हैं उसका बड़ा भारी
For Private And Personal Use Only