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विस्तृत विवेचन सहित
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इच्छाएँ ही संसार की विषय-तृष्णा को बढ़ाने वाली हैं, अतः इच्छाओं का दमन करना, इन्द्रिय निग्रह करना, प्राध्यात्मिक विकास के निये परमावश्यक है। प्रभु-शुद्धात्मा के गुणों का चिन्तन, स्मरण भी प्रतिदिन करना अनिवार्य है, क्योंकि प्रभुचिन्तवन से जीव के परिणामों में विशुद्धि पाती है तथा स्वयं अपने विकारों को दूर कर प्रभु बनने की प्रेरणा प्राप्त होती है । जो व्यक्ति धर्म ध्यान पूर्वक अपना शरीर छोड़ता है, उसके लिये किसो को भी शोक करने को आवश्यकता नहीं, क्योंकि जिस काम के लिये उसने शरीर ग्रहण किया है, उसका वह काम पूग हो गया।
साविगंजलदेके सावुपेरते मेयदाळिदा दर्गजल । सावें माण्गुमे कावरुटेयकटा ! ई जीवनेनेंदुवं । सावं कंडवनल्लवे मरणवागल्मुंदें पुट्टने-।
नीवेन्नोलिनले सावुदु सुखवले ! रत्नाकराधीश्वरा! ।।१७।। हे रत्नाकराधीश्वर ! ___मृत्यु से क्यों डरा जाय ? शरीरधारियों से मृत्यु क्या अलग रहती है ? मृत्यु डरने वालों को छोड़ भी तो नहीं सकती। क्या मृत्यु से कोई बचा सकता है ? क्या इस जीव ने मृत्यु को कभी प्राप्त नहीं किया ? मरने के बाद क्या पुनर्जन्म नहीं होगा ?
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