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रत्नाकर शतक
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विवेचन - यह प्राणी मोह के कारण, शरीर, धन, यौवन आदि को अपना मानता है, निरन्तर इनमें मग्न रहता है, इसलिये दान, तप, इन्द्रिय निग्रह आदि कल्याणकारी कामों को नहीं कर पाता है । विनाशीक धन, सम्पत्ति को शाश्वत समझता है, उसमें अपनत्व की कल्पना करता है, इसलिये दान देने में उसे कष्ट का अनुभव होता है। मोह के वशीभूत होने के कारण वह धन का त्याग - दान नहीं कर पाता है । पर सद | यह स्मरण रखना होगा कि जल की तरंगों के समान शरीर और धन चंचल हैं। जवानी थोड़े दिनों की है, धन मन के संकल्पों के समान क्षण स्थायी है, विषय-भोग वर्षा काल में चमकने वाली बिजली की चमक से भी अधिक चंचल है, फिर इनमें ममत्व कैसा १
जिस लक्ष्मी का मनुष्य गर्व करता है, जिसके अस्तित्व के कारण दूसरों को कुछ नहीं समझता तथा जिसकी प्राप्ति के लिये माता, पिता भाई-बन्धुओं की हत्या तक कर डालता है, वह लक्ष्मी आकाश में रहने वाले सुन्दर मेघ पटलों के समान देखते देखते विलीन होने वाली है। प्रत्यक्ष देखा जाता है कि कल जो धनी था, जिसकी सेवामें हजारों दास दासियाँ हाथ जोड़े आज्ञा की प्रतीक्षा में प्रस्तुत थीं, जिसके दरवाजे पर
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