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विस्तृत विवेचन सहित
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होती है। मिथ्यात्व ही परिवर्तन का प्रधान कारण है, इसके दूर हुए बिना जीव का कल्याण त्रिकाल में भी नहीं हो सकता है, जब मनुष्य गति के मिलने पर जीव आत्मा की ओर दृष्टिपात करता है, उसका चिन्तन करता है, उसके रूप में रमण करता है तो सद्बोध प्राप्त हो जाता है और मिथ्यात्व जीव का दूर हट जाता है।
ध्यानक्किल्ल तपक्के सल्ल मरणंगाण्वंदु निम्मक्षर ! ध्यानक्कोल्लेने निप्पवं मडिये नोयल्तक्कुदिष्टादिगळ ॥ दानं गेय दु तपक्के पाय दु मरणंगाएबंदु निम्मक्षर
ध्यानं गेयदलिदंगे शोकिपरिदें ! रत्नाकराधीश्वरा !॥१६॥ हे रत्नाकराधीश्वर !
जिस व्यक्ति ने कभी दान नहीं किया, जिस व्यक्ति का कभी तपस्या में मन नहीं लगा, जिस व्यक्ति ने मरने के समय प्रभु का ध्यान नहीं किया उस व्यक्ति के मरजाने पर सम्बन्धियों को शोक करना सर्वथा उचित है, क्योंकि उस पापात्मा ने आत्म-कल्याण न करते हुए अपनी लीला समाप्त कर दी। दान-धर्म करके, तपश्चर्या में सदा आगे रहकर तथा अन्तिम समय में अक्षर का ध्यान करते हुए जिस ने मृत्यु को प्राप्त किया उसके लिए कोई क्यों शोक प्रकट करेगा ? आत्म-कल्याण करता हुआ जो मृत्यु को प्राप्त होता है उस जीव के लिए शोक करना सर्वथा अयोग्य है ।। १६ ।।
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