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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra १०८ www.kobatirth.org रत्नाकर शतक Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भूले हुए है जिसे औरों को बूढ़े होते हुए देख तथा मरते हुए देख कर भी बोध प्राप्त नहीं करता है । खाना, पीना, आनन्द करना, मिथ्या आशाएँ बांध कर अपने को संतुष्ट करना, अपने वास्तविक कर्त्तव्य के सम्बन्ध में कुछ नहीं सोचना; कितनी भयंकर भूल है। प्रत्येक व्यक्ति को वैराग्य प्राप्त करने के लिये 'संसार और शरीर' इनदोनों का यथार्थ चिन्तन करना चाहिये । पुलुवीडोळ्पलवु पगल्परदनिर्दा दायमं पेत्तु वाऴ्नेलेयुळ्ळोंदेडेगेय्दुला नेलेयवनवते पाळ्मेय्योळि - ॥ दलविं पुण्यमणीमनं गळसिकोंडा देवलोकक्क पो । गलोडं नोवरवंगो नोव तवगो । रत्नाकराधीश्वरा ||१५|| t taeराधीश्वर ! एक व्यक्ति एक छोटा सा मकान किराये पर लेता है। उस मकान में रह कर नाना प्रकार की संपत्ति का अर्जन करता है I कालान्तर में धनी हो कर जब वह व्यक्ति किसी बड़े मकान में चला जाता है तब पहले मकान का मालिक किराया नहीं मिलने के कारण अप्रसन्न हो जाता है । इसी प्रकार जब जीव इस शरीर को छोड़कर अन्य दिव्य शरीर को प्राप्त करता है तब पहले शरीर से समबन्ध रखने वाले संबंधी अपने स्वार्थ को खतरे में जान कर दुःखी होते हैं । ॥१५॥ विवेचन --- कार्माण शरीर के कारण इस जीव को चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करना पड़ता है: श्रागम में इसे पंच For Private And Personal Use Only
SR No.020602
Book TitleRatnakar Pacchisi Ane Prachin Sazzayadi Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmedchand Raichand Master
PublisherUmedchand Raichand Master
Publication Year1922
Total Pages195
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati
File Size10 MB
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