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विस्तृत विवेचन सहित
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जामें परिगह को बिषाद मिथ्या वकबाद,
विषैभोग सुखको सबाद जैसे सपनौ । ऐसो है जगतवास जैसो चपला विलास,
तामें तूं मगन भयो त्याग धर्म अपनौ । अर्थ--इस शरीर में सर्वदा रोग लगे रहते हैं, यह दुर्बल, कमजोर और क्षीण होता रहता है। क्षण-क्षण में आयु घटती रहती है, आयु के इस क्षीणपने को कोई नहीं रोक सकता है। नाना प्रकार के पाप भी मनुष्य इस शरीर में करता है, जिससे नरक की चिन्ता भी इसे सदा बनी रहती है। विपत्ति के आने प नाना प्रकार से संताप करता है, दुःख करना है, शोक करता है और अपने किये का पश्चाताप करता है। परिग्रह धन-धान्य वस्त्र, आभूषण, महल, आदि के संग्रह के लिये रातदिन श्रम करता है; क्षणिक विषय भोगों को भोगता है, इनके न मिलने पर कष्ट और बेचैनी का अनुभव करता है। यह मनुष्य भव क्षणिक है, जैसे आकाश में बिजली चमकती है, और क्षणभर में विलीन हो जाती है उसी प्रकार यह मनुष्य भव भी क्षणभर में नाश होने वाला है। यह जीव अपने स्वरूप को भूलकर इन विषयों में लीन हो गया है। अतः विषय-कषाय का त्याग कर इस मनुष्य जीवन का उपयोग आत्म कल्याण के लिये करना चाहिये ।
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