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विस्तृत विवेचन सहित
जीव का सबसे बड़ा अपराध है आत्मा से भिन्न सुख को मानना, इस अपराध का दण्ड है संसाररूपी जेल । जाब में जब यह श्रद्धा उत्पन्न हो जाती है कि 'मेरा सुख मुझ में है; ज्ञान, दर्शन, चारित्र भी मुझ में ही हैं, मेरा स्वरूप सर्वदा निमल है, तो वह सम्यग्दृष्टि माना जाता है। पर से भिन्न अपने स्वतन्त्ररूप को जान लेने पर जीव सम्यग्ज्ञानी और पर से भिन्न स्वरूप में रमा करने पर सम्यक् चारित्रवान् कहा जाता है। अतएव आध्यात्मिक शास्त्रों के अनुसार स्वतन्त्र स्वरूप का निश्चय, उसका ज्ञान, उसमें लीन होना और उससे विरुद्ध इच्छा का त्यागना ये चार श्रास्मप्राप्ति की आराधनाएँ हैं और निर्दोष ज्ञानस्वरूप में लीन होना आत्मा का व्यापार है।
तात्पर्य यह है कि आत्मा सामान्य, विशेषस्वरूप है, अनादि, अनन्तज्ञान स्वरूप है। इस सामान्य की समय-समय पर जो पर्यायें होती हैं, वे विशेष हैं। सामान्य ध्रौव्य रहकर विशेषरूप में परिणमन करता है। यदि पुरुषार्थी जीव विशेष पर्याय में अपने स्वरूप की रुचि करे तो विशेष शुद्ध और विपरीत रुचि करे कि 'जो रागादि, दोषादि हैं, वह मैं हूँ तो विशेष अशुद्ध होता है। मेदविज्ञानी जाव क्रमबद्ध होनेवाली पर्यायों में राग नहीं करता, अपने स्वरूप की रुचि करता है। सभी द्रव्यों की
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